समीक्षा - मुट्ठी भर आकाश
"मुट्ठी भर आकाश"... काव्य-संग्रह पढ़कर अलग रखा तो लगा, कवयित्री/रेडियो जॉकी सुरभि सक्सेना की ये
किताब कई मायनों में ख़ास है।
सुरभि की कवितायेँ बोतल में बंद इत्र की तरह, व्याकरण के कांच की दीवारों में नहीं रहतीं। वो हवाओं में
आज़ाद ख़ुशबू की तरह खुले में तैरती हैं।
सुरभि की कवितायेँ बोतल में बंद इत्र की तरह, व्याकरण के कांच की दीवारों में नहीं रहतीं। वो हवाओं में
आज़ाद ख़ुशबू की तरह खुले में तैरती हैं।
सबसे आनंदित कर देने वाली बात ये लगी कि अधिकांश रचनाओं में कवयित्री की गंभीरता नहीं वरन एक
अल्हड युवती का नटखटपन, एक चुलबुली लड़की की, रुई-सी उडती शख्सियत...कोयल के साथ घर के
पिछवाड़े नाचने जैसी तमन्ना और एक जोड़ी युवा आँखों की भोली ख़्वाहिशें गुँथी हुई हैं।
ये रचनाएँ ज़िन्दगी से ऐसे ही बेबाकी से बात करती हैं जैसे दो नजदीकी दोस्त आपस में बतिया रहे हों।
कई जगह यदि हल्की-फुल्की उदासी उनकी तरफ आ भी जाती है तो वो उस से भी उसी बेलौस अंदाज़ में कह
देती हैं-''मुझको अपने गले लगा लो, मैं मुहब्बत हूँ।''
कई जगह उनका पूरा वजूद एक ''खोज'' में तब्दील होता दिखता है।
कभी उनकी रचनाएँ सपनों के किसी अनजान चेहरे की तरफ आकुल-सी दौड़ती हैं तो कभी एक जोगिया-
बावरापन पैरों में बांधे खुले मैदानों की तरफ निकल जाती हैं।
एक मुट्ठी में सारा आकाश कैसे समेटा जा सकता है, ये हर पन्ने से गुज़रते हुए महसूस होता रहा।
जितनी अच्छी वो रचनाकारा हैं, उतनी ही शानदार रेडियो जॉकी भी। आल इण्डिया रेडियो पर, किसी किशोरी
चूड़ियों-सी खनकती वो सात्विक आवाज़ मन को हमेशा ऊर्जा से भर जाती है।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं --
कुमार पंकज
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