ज़िन्दगी को पतंगों सी रंगीन
ज़िन्दगी को पतंग सी, कटी ही क्यों कहते हैं
ज़िन्दगी को पतंगों सी, रंगीन क्यों नही कहते
रात की रहगुज़र में है, सुबह का उजाला प्रिये
तो उम्र भी अपनी, मंज़िल की तरफ़ ढल रही
एक तुम्हीं बस न, जाने कहाँ खो गए हो
तुम्हारी ही खोज में, चल रही हूँ, मैं ढल रही हूँ
मैं रिश्तों की डोर से बंध, कभी खिंच रही, कभी झुक रही हूँ
ये सफर ज़िन्दगी का तनहा हुआ तो क्या
धीरे धीरे मैं संभल रही हूँ, हाँ मैं चल तो रही हूँ
ये सोचते हुए की ज़िन्दगी को पतंग सी, कटी ही क्यों कहते हैं
ज़िन्दगी को पतंगों सी, रंगीन क्यों नही कहते,
ज़िन्दगी को हम फिज़ाओ सी हसीं क्यों नहीं कहते
#सुरभि
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