मोहम्मद रफी - दुनिया से मौसिकी का पयम्बर चला गया
दुआएं जादू की तरह होती हैं, वह रुके और थमे हुए आब को मुसलसल करती हैं, फूलों को खिलाती है, बच्चों को तरक्की बख्शती है और हुनर को उसके मुकाम तक पहुंचाकर पूरी दुनिया में रौशन कर देती है। दुआएं मां के ताबीज से निकलती हैं और हिफाजत का साया बन जाती है और बजुर्गों की हथेलियों से सिर पर घूमती है, तो मोहब्बत नवाजती है और जिस दिन किसी फकीर की झोली से निकलती है, तो बरकत और रहनुमाई बरसाती है, इल्म से लबरेज कर देती है और यकीन मानिए मोहम्मद रफी बना देती है।
हां, वह आज ही का दिन था, 31 जुलाई 1980 की शाम का वह दिन, जिस दिन उस शहर जिसे मुंबई कहते हैं कि उसका आसमान रो रहा था। उसके आंसुओ की धार ऐसी थी कि पूरा देश भीग चुका था। फिजा में खामोशी तारी थी, जैसे कोई नश्तर सा टूट के हर दिल में रह गया हो। इसी खामोशी में- इसी मायूसी से भरे सन्नाटे में 'शहंशाह ए तरन्नुम' सुपुर्दे ख़ाक किया जा रहा था और संगीतकार नौशाद ये पंक्तियां बरबस ही बुदबुदाने लगे थे
''कहता है कोई दिल गया , दिलबर चला गया
साहिल पुकारता है समंदर चला गया
लेकिन जो बात सच है , कहता नहीं कोई
दुनिया से मौसिकी का पयम्बर चला गया।''
सचमुच हजारों हजार लोगों का हुजूम तो था, मगर सबके मुंह सिले हुए, आंखें नम, सब एक दूसरे की और देख तो रहे थे, मगर मौन। किससे क्या कहें और कैसे कहें कि हमारे बीच उसके सुर तो हैं, मगर सुर सम्राट नहीं है। यकीन ही नहीं हो रहा था कि जो शख्स कल तक अपनी आवाज का दीवाना बनाये हुए था, आज उसका जनाजा लोग कंधे पर उठाये हुए हैं। लोग भीगते रहे -अपने सुर सम्राट को कांधे पर उठाये रहे। इस बीच बारिश के बीच मशहूर अभिनेता मनोज कुमार के मुंह से बोल फूटे ओह, सुरों की मां सरस्वती भी अपने आंसू बहा रही हैं आज। कहते हैं न कि फ़रिश्ते होते हैं, वो जिन्हें अहसास हो जाता है कि दुनिया में जिस कार्य हेतु खुदा ने भेजा था वो पूरा हुआ, अब कूच कर देना चाहिए।
जी हां, मोहम्मद रफ़ी को यह अहसास हो गया था कि आज का दिन उनका आख़िरी दिन है। शायद तभी उन्होंने आज के दिन 31 जुलाई 1980 को अपने एक गाने की रिकॉर्डिंग पूरी करने के बाद संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारे लाल से कहा कि ''ओके नाऊ आई विल लीव।'' तब किसी ने भी यह नही सोचा होगा कि आवाज का यह जादूगर सचमुच ऐसी छुट्टी पर जा रहा है, जहां से कभी लौट के नहीं आनेवाला। उस दिन अपने संगीतकार से कहे गए शब्द उनके जीवन के आखिरी शब्द साबित हुए। उसी दिन शाम 7 बजकर 30 मिनट पर मोहम्मद रफी को दिल का दौरा पड़ा और वह अपने करोड़ों प्रशंसकों को छोड़कर इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए चले गए। पीछे रह गई तो उनकी आवाज और ऐसा आलम जो सचमुच कभी रफ़ी साहब को भुला न पायेगा।
''जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे
संग संग तुम भी गुनगुनाओगे ,
तुम मुझे हां तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे..
एक फकीर ने दुआ बरसाई
अौर उस फकीर ने बना दिया उसे रफी : पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव (अमृतसर के पास) में 24 दिसंबर 1924 को एक मध्यम वर्गीय मुस्लिम परिवार में जन्में रफी को बचपन में एक फकीर ने अपने गीतों के साथ मोहित किया था। संगीत के प्रति मोह शायद तभी से हुआ और शायद तभी से नन्हें रफ़ी ने गायक बनाने की हूक अपने दिल में जगाई। इस हूक को पहचाना रफी के बड़े भाई हमीद ने। हमीद ने देखा था दो वर्ष के उस रफ़ी को जो सुल्तानपुर (लाहौर) में उनके दरवाजे पर खैरात मांगने आए फकीर को गाते हुए न केवल देखता, बल्कि उसकी तरह गाने का प्रयास भी करता था।
बताते तो यह भी हैं कि रफ़ी के बड़े भाई की नाई की दुकान थी, रफ़ी का काफी वक्त वहीं पर गुजरता था। रफ़ी जब सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की दुकान से होकर गुजरने वाले एक फकीर के पीछे लग जाते थे, जो उधर से गाते हुए जाया करता था। उसकी आवाज रफ़ी को पसन्द आई और रफ़ी उसकी नकल करने लगे थे। इस नकल में निपुणता देखकर लोगों को उनकी आवाज भी पसन्द आने लगी। लोग नाई की दुकान में उनके गाने की प्रशंसा करने लगे। एक दिन उस फ़कीर ने भी सुना ,उसने देखा कि फकीरी गीत गाते वक्त नन्हे रफ़ी के दिल में खास भक्तिभाव आ जाता है, यह देख फकीर बहुत खुश हुआ और 6 साल के रफी को उसने आशीर्वाद दिया, “बेटा एक दिन तू बहुत बड़ा गायक बनेगा”। आशीर्वाद न केवल फलीभूत हुआ बल्कि ऐसा फलीभूत हुआ कि अपनी सदगीभरी आवाज से उन्होंने पूरे देश को दीवाना बनाकर रख दिया!
26 हजार गाने गाए थे रफी ने : मोहम्मद रफी ने अपनी अपनी पेशेवर जिंदगी में तकरीबन 26 हजार गीत गाये, और लगभग हर भाषाओ में। वर्ष 1946 में फिल्म 'अनमोल घड़ी' में 'तेरा खिलौना टूटा ' से उन्होंने हिन्दी फिल्म जगत के पायदान पर कदम रखे थे और उसके बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। शर्मीले रफ़ी और शम्मी सीधे-सादे और बहुत ही शर्मीले हुआ करते थे मोहम्मद रफ़ी। न किसी से ज्यादा बातचीत न ही किसी से कोई लेना-देना। न शराब का शौक न सिगरेट का। न पार्टियों में जाने का शौक, न ही देर रात घर से बाहर रहकर धूमाचौकड़ी करने की फितरत। एकदम सामान्य और शरीफ थे रफ़ी। आजादी के समय विभाजन के दौरान उन्होने भारत में रहना पसन्द किया। उन्होंने बेगम विक़लिस से शादी की और उनकी सात संतान हुईं-चार बेटे तथा तीन बेटियां।
शम्मी कपूर को दी बुलंदियां : फिल्मों में आने के बाद वे उस फिल्म के अभिनेता की आवाज से मेल खाती हुई आवाज में गाने का भरसक प्रयास करते, ताकि फिल्म में जान आ सके। ऐसे में मिले शम्मी कपूर। यह किसी से छुपा नहीं है कि दिवंगत अभिनेता शम्मी कपूर के लोकप्रिय गीतों में मोहम्मद रफ़ी का बहुत बड़ा योगदान है। जिस प्रकार राजकपूर के लिए मुकेश अपनी आवाज बनकर आए, ठीक उसी तरह रफ़ी शम्मी कपूर के लिए। शम्मी कपूर के ऊपर फिल्माए गए ऐसे कुछ लोकप्रिय गाने जैसे 'चाहे कोई मुझे जंगली कहे', 'एहसान तेरा होगा मुझपर', 'ये चांद सा रोशन चेहरा', 'दीवाना हुआ बादल' जो रफ़ी द्वारा गायें गए , ने ऐसी धूम मचाई कि शम्मी कपूर सुपर हीरो की तरह दिखाई देने लगे थे।
कहते हैं रफ़ी और शम्मी के बीच जुगलबंदी को देखकर अन्य अभिनेताओं को भी लगाने लगा था कि यदि रफ़ी की आवाज उन्हें मिल जाए तो वे भी चमक सकते हैं। ज्यादातर अभिनेता रफ़ी से गाना गवाने का आग्रह करने लगे। अभिनेता दिलीप कुमार व धर्मेन्द्र तो मानते ही नहीं थे कि उनके लिए कोई और गायक गाए। उस वक्त 'मन्ना डे', 'तलत महमूद' और 'हेमन्त कुमार' जैसे गायकों का बोलबाला था और माना जाता है कि अप्रत्यक्ष रूप से रफ़ी ने इन गायको को काफी नुक्सान पहुंचाया। किन्तु गायकी को समर्पित लोगो की खूबी भी उतनी थी कि ये सब रफ़ी से चिढ़ने के बजाये खुश होते रहे और रफ़ी के गीत भी गुनगुनाते रहे।
शम्मी कपूर कहते थे कि ''रफ़ी उनकी आवाज है, रफ़ी के बिना मेरी फिल्मो में मैं अधूरा हूं। ''
सम्मान और एवॉर्ड का लगा दिया ढेर : वो 55-60 का दशक था जब रफ़ी की आवाज हरेक कानो में गूंजने लगी थी। प्यार-मोहब्बत हो या दर्दभरे नगमे रफ़ी की आवाज से शब्द ज़िंदा होकर उठते थे, और लोगों के दिलो में बस जाया करते थे। इन्ही दिनों एक गीत आया- चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो। इस गीत ने ऐसा गजब किया कि हर जवान दिलो के मुंह पर अपने चांद के लिए यही गीत छा गया। लिहाजा पहली बार मोहम्मद रफ़ी को इसी गीत के लिए फिल्म फेयर एवॉर्ड से नवाजा गया। इसके बाद सन् 1961 में रफ़ी को अपना दूसरा फ़िल्मफेयर एवॉर्ड फ़िल्म 'ससुराल' के गीत 'तेरी प्यारी प्यारी सूरत को' के लिए मिला।
1965 में ही लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में फ़िल्म दोस्ती के लिए गाए गीत 'चाहूंगा मै तुझे सांझ सवेरे के' लिए रफ़ी को तीसरा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। साल 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा। साल 1966 में फ़िल्म सूरज के गीत'बहारों फूल बरसाओ' बहुत प्रसिद्ध हुआ और इसके लिए उन्हें चौथा फ़िल्मफेयर एवॉर्ड मिला। साल 1968 में शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ब्रह्मचारी के गीत 'दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर' के लिए उन्हें पाचवां फ़िल्मफेयर एवॉर्ड मिला। और 1977 में छठा और अंतिम फिल्म फेयर एवॉर्ड उन्हें ''क्या हुआ तेरा वादा .... ' गीत के लिए मिला।
जिंदगी के सफर में रफी : यह बहुत काम लोग जानते होंगे कि मोहम्मद रफी ने दो शादियां की थी। उन्होंने अपनी पहली शादी की बात जमानेभर से छिपाकर रखी थी। बस उनके घरवाले जानते थे। यह बात शायद पता भी नहीं चलती अगर रफी की पुत्रवधू यास्मीन खालिद रफी की पुस्तक बाजार में ना आती। यास्मीन की प्रकाशित पुस्तक ''मोहम्मद रफी. मेरे अब्बा..एक संस्मरण.'' में इस बात का जिक्र किया गया है। लिखा है कि तेरह साल की उम्र में रफी की पहली शादी उनके चाचा की बेटी बशीरन बेगम से हुई थी, लेकिन कुछ साल बाद ही उनका तलाक हो गया था। इस विवाह से उनका एक बेटा सईद हुआ था। उनके इस पहले विवाह के बारे में घर में सभी को मालूम था लेकिन बाहरी लोगों से इसे छिपा कर रखा गया था। घर में इस बात का जिक्र करना भी मना था क्योंकि रफी की दूसरी बीवी बिलकिस बेगम इसे नापसंद करती थी और उन्हें बर्दाश्त नहीं था कि कोई इस बारे में बात भी करे। यदि कभी कोई इसकी चर्चा करता भी था, तो बिलकिस बेगम और रफी के साले जहीर बारी इसे अफवाह कहकर बात को वहीं दबा देते थे।
यास्मीन रफी लिखती हैं कि वह समझ नहीं पाती थीं कि इस बात को छिपाने की क्या जरूरत है। 1944 में बीस साल की उम्र में रफी की दूसरी शादी सिराजुद्दीन अहमद बारी और तालिमुन्निसा की बेटी बिलकिस के साथ हुई। जिनसे उनके तीन बेटे खालिद, हामिद और शाहिद तथा तीन पुत्रियां परवीन अहमद, नसरीन अहमद और यास्मीन अहमद हुईं। रफी साहब के तीन बेटों सईद, खालिद और हामिद की मौत हो चुकी है। खालिद और हामिद की दिल का दौरा पड़ने से हुई थी।और सईद की कार दुर्घटना में मौत हुई।
रफ़ी और नौशाद : बात 1944 की थी तब जब मोहम्मद रफी नौशाद साहब के नाम एक सिफारशी पत्र लेकर मुंबई आ गए थे। नौशाद ने इस पत्र का आदर किया और रफ़ी की आवाज सुनी। सुनकर वो ऐसे मदहोश हुए कि उन्हें लगा मानो कोई फरिश्ता उनके सामने गा रहा हो, नौशाद ने रफ़ी को हिन्दी फिल्म 'पहले आप' में गवाया और इस गाने के लिए रफी को 50 रुपये मेहनताना भी दिए गए। यहां से शुरू हुआ रफी का संघर्ष पूर्ण सफर। पहली सफलता मिली फिल्म जुगनू के गीत ''बदला यहां वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है 'से। और देखते ही देखते कोटला सुल्तान सिंह का फीकू अब मोहम्मद रफी बन चुका था, जिसमे नौशाद का अहम योगदान भी था।
माहे पाक रमजान का वो दिन : जिस रफ़ी ने उनके कानो में जादू घोला था उसकी अंतिम यात्रा के दिन फफक पड़े थे नौशाद। बाद में उन्होंने इस दिन को याद करते हुए कहा था कि -''रमजान में मोहम्माद रफी का इंतेकाल हुआ था और रमजान में भी अलविदा के दिन। बांद्रा की बड़ी मस्जिद में उनकी नमाजे जनाजा हुई थी। पूरा ट्रैफिक जाम था। क्या हिंदू, क्या सिख, क्या ईसाई, हर कौम सडकों पर आ गई थी। नमाज के पीछे जो लोग नमाज में शरीक थे उनमें राज कपूर, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त के अलावा इंडस्ट्री के तमाम लोग मौजूद थे। हर मजहब के लोगों ने उनको कंधा दिया।'' अंतिम यात्रा के दिन लोगों का हुजूम उमड़ा वो मोहम्मद रफ़ी के लिए ही था। यहां तक की आसमान भी रो पड़ा था। पूरी यात्रा के दौरान पानी गिरता रहा था। प्रकृति भी मानों अपने महान गायक को अलविदा कह रही थी। मगर उनकी रूह हर दिल को कह रही थी- तुम मुझे यूं भुला ना पाओगे!
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