जीवन में क्यों एक बार गोवर्धन ज़रूर जाएँ
*क्यों जीवन में कम से कम एक बार गोवर्धन का स्पर्श जरूर करना चाहिए?*👇
*गिरिराज गोवर्धनजी की परिक्रमा की परंपरा है. भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को धारण करके गोकुल की रक्षा की थी. गोवर्धन का स्पर्श हो जाना भी सौभाग्य की बात है. आज मैं आपको गोवर्धन की महिमा की एक ऐसी कथा सुनाऊंगा जो शायद आपने पहले न सुनी हो. क्यों गिरिराजजी का पत्थर लोग अपने घर में सहेजकर रखते हैं.*
*अपने जीवनकाल में हर श्रीकृष्ण भक्त को एक बार गोवर्धन जाकर उनका स्पर्श तो कर ही लेना चाहिए. गर्ग संहिता की जो कथा सुनाने जा रहा हूं वह कथा स्वयं नारदजी ने सुनाई थी.*
*राजा बहुलाश्व ने सेवा करके नारदजी को बहुत प्रसन्न कर लिया. वह नारदजी से ज्ञान प्राप्त करने लगे. नारदजी ने बहुलाश्व को बताया कि वह वर्ष में एक बार गोवर्धनजी को प्रणाम करने अवश्य जाते हैं.*
*बहुलाश्व ने नारदजी से पूछा- हे देवर्षि ऐसी क्या खास बात है गोवर्धनजी में. मुझे गोवर्धनजी के माहात्म्य कथा सुनने की इच्छा हो रही है. मेरी जिज्ञासा शांत करें.*
*नारद बोले- गौतमी गंगा यानी गोदावरी नदी के तट पर बसने वाला ब्राह्मण विजय का कुछ कर्ज मथुरा में बकाया था. वही वसूलने वह मथुरा आया हुआ था.*
*दिन में उसने वसूली की और शाम होने से पहले ही अपने रास्ते चल पड़ा. गोवर्धन गिरिराजजी तक पहुंचते पहुचते अंधेरा होने लगा.*
*चूंकि विजय के हाथ एक लाठी के सिवा कोई हथियार तो था नहीं. उसे चोरों का डर महसूस हुआ तो उसने गिरिराज जी के पास से एक गोल चिकना पत्थर उठाकर साथ रख लिया.*
*डर भगाने के लिए वह हरेकृष्ण हरे कृष्ण भजता जंगल के बीच से ब्रजमंडल को पार कर गया पर छोड़ा ही आगे बढा होगा कि उसने एक तीन पैरों वाले राक्षस को सामने खड़ा पाया.*
*राक्षस का मुंह उसकी छाती पर था. एक बांस लंबी उसकी जीभ लपलपा रही थी और वह उसे निगलने को तैयार था. भूखा राक्षस विजय की ओर लपका.*
*विजय जब गिरिराजजी के पास से गुजरा था तो उसने गिरिराजजी का एक गोल पत्थर उठा लिया था. गिरिराजजी के दर्शन को आने वाले सहज ही ऐसा करते हैं.*
*विजय को कुछ न सूझा तो उसने अपनी रक्षा के लिए वही पत्थर राक्षस को दे मारा.*
*विजय को यकीन था कि इतने विशाल राक्षस का इस छोटे से पत्थर से कुछ होने जाने वाला नहीं. इसलिए पत्थर चलाने के बाद उसने मारे डर और घबराहट में आंखे मूंद लीं.*
*विजय की आखें खुली तो उसने देखा कि राक्षस का तो कहीं अता पता नहीं है, उसके सामने तो साक्षात भगवान कृष्ण खड़े हैं.*
*अचरज की बात कि भगवान विजय की ओर हाथ जोड़े खड़े थे.*
*जब तक विजय के मुंह से कुछ निकलता, उस वंशीधारी स्वरूप ने विजय से कहा- आप धन्य हैं जो मुझे इस राक्षस योनि से छुटकारा दिला दिया.*
*विजय ने सोचा यह क्या आश्चर्य है. वंशीधर मुझे कह रहे हैं कि मैंने उनका उद्धार कर दिया. यह कौन सी माया है. वह चकित होकर उसे देखने लगा तो उद्धारगति से गुजरे राक्षस ने बताना शुरू किया.*
*उसने कहा- हे ब्रह्मण! इस पत्थर के मेरे शरीर से छू जाने भर से सिर्फ मेरा उद्धार ही नहीं हुआ बल्कि मैंने श्रीकृष्ण का सारूप्य प्राप्त कर लिया, मैं उनके जैसा हो गया.*
*यह सब आपके द्वारा मुझ पर चलाए गए इस पत्थर की महिमा है. इस छोटे से पत्थर के प्रहार से ही मेरे अंदर के शाप का संहार हो गया. आप मेरे उद्धार के माध्यम बने. आप को बारम्बार नमस्कार है.*
*विजय बोला- यह क्या बात कह हे हैं आप, मुझमें उद्धार की ताकत कहां! यदि यह चमत्कार इस पत्थर की महिमा से हुआ है तो वह भी मैं नहीं जानता. आप ही मुझे इस पत्थर की महिमा बताकर कृतार्थ करें.*
*ब्राह्मण विजय की बात पर वह कृष्ण जैसा दिखने वाला वंशीधारी बोला- गिरिराज जैसा तीर्थ न पहले कभी हुआ है न भविष्य में कभी होगा. केदार तीर्थ में पांच हजार साल तप करने से जो पुण्य मिलता है गोवर्धन पर क्षणभर में मिल जाता है.*
*महेंद्र पर्वत पर अश्वमेध करके मनुष्य स्वर्ग का अधिपति बन सकता है जबकि यही गिरिराजजी पर करने से वह स्वर्ग के मस्तक पर पैर रखकर सीधे विष्णुलोक जाता है.*
*गोवर्धन परिक्रमा करके गोविंद कुंड में स्नान करने से मनुष्य श्रीकृष्ण जैसे दिव्य हो जाते हैं.*
*उसने विजय को गिरिराजजी की ऐसी हजार महिमा बतायी जो आश्चर्य में डालने वाली थीं.*
*विजय ने पूछा- तुम दिव्यरूप धारी दिखायी देते हो, पर तुम भगवान कृष्ण तो हो नहीं. तुम हो कौन?*
*उसने अपनी कथा भी बतानी शुरू की.*
*हे पुण्यात्मा ब्राह्मण मेरी यह कथा कई जन्म पूर्व से से शुरू होती है. आपने मेरा उद्धार किया है अतः मैं आपको अवश्य सुनाऊंगा.*
*कई जन्मपूर्व मैं एक धनी वैश्य था. मैंने व्यापार कर्म करके अथाह धन जमा किया. मैं नगर का सबसे बड़ा धनिक हो गया पर धन होने से मुझमें एक बुराई आ गई.*
*मुझे जुए की लत लग गयी. जुआ खेलने की पूरी टोली में मैं सबसे चतुर जुआरी था. मुझे कोई हरा नहीं पाता था. इसी बीच मुझे एक वेश्या से प्रेम हो गया तो शराब पीकर धुत्त रहने लगा. मां-बाप, पत्नी सबने मुझे बहुत दुत्कारा.*
*वे मेरा निरंतर अपमान कर देते थे. क्रोध में भरकर मैंने उनकी हत्या करने की सोची और एक दिन अवसर देखकर मां-पिता को विष दे दिया.*
*अपने मां-बाप को मार डालने के बाद मैंने अपनी पत्नी को लिया और उसे कहीं और चलकर बस जाने के लिए फुसला लिया. वह मान गई तो उसे लेकर मैं चला.*
*रास्ते में मैंने पत्नी की भी हत्या कर दी. अब न तो कोई दुत्कारने वाला था और न ही धन व्यय करने पर रोक-टोक वाला था. धन तथा अपनी प्रेयसी वेश्या को लेकर मैं दक्षिण देश चला गया.*
*एक समय बाद मेरा धन समाप्त हो गया. धन के अपव्यय की लत थी इसलिए धन की बहुत आवश्यकता हुई तो वहां मैं लूटपाट करने लगा.*
*कुछ समय बाद मेरा मन उस वेश्या से भी भर गया तो मैंने उससे भी छुटकारा पाने की सोची. एक दिन उसे भी अंधे कुंए में ढकेल आया.*
*उसके बाद मैं लूटपाट करता रहा. लूटपाट के लिए मैंने सैकड़ों हत्याएं कीं. एक दिन वन में एक सांप पर पैर पड़ गया. उसने मुझे डस लिया तो मेरी तुरंत मौत हो गयी.*
*चौरासी लाख नरकों में मैंने एक-एक साल यातना सही. फिर दस बार सूअर बनके जन्मा. उसके बाद सौ-सौ साल तक ऊंट, शेर, भैंसा और हजार साल सांप हुआ फिर राक्षस हुआ.*
*राक्षस बनने के बाद एक दिन एक व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करके मैं व्रजभूमि में घुस आया. वहां वृंदावन में यमुना तट पर भगवान कृष्ण के पार्षद मुझे पहचान गए. उन्होंने मुझे पकड़कर खूब पीटा और इस क्षेत्र से दूर रहने को कहा.*
*किसी तरह बचकर व्रज क्षेत्र से बाहर आया पर तब से आज तक बहुत दिनों से भूखा था. आज तुम्हें देखा तो लगा भूख शांत होगी. तुमको खाने ही जा रहा था कि इसी बीच तुमने मुझे गिरिराज जी के उस पत्थर से मारा.*
*गिरिराजजी का कण-कण पवित्र है. उस पत्थर के लगते ही साक्षात् भगवान कृष्ण की कृपा मुझ पर हुई और मेरा तत्काल उद्धार हो गया.*
*वह अपनी कथा सुना ही रहा था कि तभी एक रथ गोलोक से धरती पर उतरा.*
*ब्राह्मण विजय और सिद्ध दोनों ने उस रथ को नमस्कार किया. सिद्ध को उस रथ में बिठा लिया गया और रथ श्रीकृष्ण के धाम की ओर चल पड़ा.*
*इतनी कथा सुनाकर नारदजी बोले- हे बहुलाश्व, वह सिद्ध तो श्रीकृष्ण धाम को चला गया. ब्राह्मण भी गिरिराज की महिमा जान गया था. उसने गिरिराज की परिक्रमा की फिर सभी गिरिराज देवताओं के दर्शन किये और घर को लौटा. (गर्ग संहिता की कथा)*
*जय गऊ माता*
*राधे राधे*
Post a Comment