✨ अथ गायत्री संहिता ✨
जागृता ग्रन्थयस्त्वेताः सूक्ष्माः साधकमानसे। दिव्यशक्तिसमद्भूतिं क्षिप्रं कुर्वन्त्य संशयम् ॥ 26॥
जागृत हुई ये सूक्ष्म यौगिक ग्रन्थियाँ साधक के मन में निःसन्देह शीघ्र ही दिव्य शक्तियों को पैदा कर देती हैं।
जनयन्ति कृते पुँसामेता वै दिव्यशक्तयः। विविधान् परिणामान्हि भव्यान्मंगलपूरितान् ॥ 27॥
ये दिव्य शक्तियाँ मनुष्यों के लिये नाना प्रकार के मंगलमय, सुन्दर परिणामों को उत्पन्न करती हैं।
मन्त्रस्योच्चारणं कार्यं शुद्धमेवाप्रमादतः। तदशक्तो जपेन्नित्यं सप्रणवास्तु व्याहृतीः॥ 28॥
आलस्य रहित होकर गायत्री मन्त्र का शुद्ध ही उच्चारण करना चाहिये। जो ऐसा करने में असमर्थ हो वह केवल प्रणय (ॐ) सहित व्याहृतियों का जाप करे।
ओमिति प्रणयः पूर्वं भूर्भुवः स्वरतदुत्तरम्। एषोक्ता लघु गायत्री विद्वद्भिर्वेदपंडितैः॥ 29॥
पहले प्रणव (ॐ) का उच्चारण करना चाहिए तत्पश्चात् भू र्भुवः स्वःका। यह पंचाक्षरी मन्त्र (ॐ भूर्भुवः स्वः) वेदज्ञ विद्वानों ने लघु गायत्री कहा है।
शुद्धं परिधान माधाय शुद्धे वै वायुमण्डले। शुद्ध देह मनोभ्याँ वै कार्या गायत्र्युपासना॥ 30 ॥
शुद्ध वस्त्रों को धारण करके शुद्ध ही हवा में देह एवं मन को शुद्ध करके गायत्री की उपासना करनी चाहिये।
दीक्षामादाय गायत्र्याः ब्रह्मनिष्ठाग्रजन्मना। आरभ्यताँ ततः सभ्यग्विधिनोपासना सता ॥ 31॥
किसी ब्रह्म निष्ठ ब्राह्मण से गायत्री की दीक्षा लेकर तब विधि पूर्वक उपासना आरम्भ करनी चाहिए।
गायत्र्युपासनामुक्त्वा नित्यावश्यक कर्मसु। उक्तस्तत्र द्विजातीनाँ नानध्यायो विचक्षणैः॥ 32॥
गायत्री उपासना को विद्वानों ने द्विजों के लिए अनिवार्य, किसी भी दिन न छोड़ने योग्य, नित्यकर्म बताया है।
आराधयन्ति गायत्री न नित्यं ये द्विजन्मनः। जायन्ते हि स्वकर्मभ्यस्ते च्युतानात्र संशय॥ 34॥
जो द्विज गायत्री की नित्य प्रति उपासना नहीं करते वे अपने कर्त्तव्य से च्युत हो जाते हैं।
शूद्रास्तु जन्मना सर्वें पश्चाद्यान्ति द्विजन्मताम्। गायत्र्यैव जनाः साक ह्युपवींतस्य धारणात्॥ 34॥
जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं बाद में मनुष्य गायत्री के सहित यज्ञोपवीत धारण करने से द्विजत्व को प्राप्त होता है।
उच्चता पतितानाँ च पापानाँ पापनाशम। जायेते कृपायैवास्याः वेदमातुरनन्तया॥ 35॥
पतितों को उच्चता और पापियों को उसके पापों का विनाश ये दोनों कार्य इस वेदों की माता गायत्री की अनन्त कृपा से ही होते हैं।
गायत्र्या या युता संध्या ब्रह्मसंध्या तु सा मता। कीर्तितं सर्वतः श्रेष्ठं तदनुष्ठानमागमैः ॥ 36॥
जो संध्या गायत्री से युक्त होती है वह ब्रह्म संध्या कहलाती है। शास्त्रों ने उसका उपयोग सबसे श्रेष्ठ बताया है।
आचमनं शिखाबन्धः प्राणायामोऽघमर्षणम्। न्यासश्चोवासनायाँतु पंच कोषा मता बुधैः ॥37॥
आचमन, चोटी बाँधना, प्राणायाम, अघमर्षण और न्यास, ये पाँच कोष विद्वानों ने गायत्री संध्या की उपासना में स्वीकार किये हैं।
ध्यानतस्तु ततः पश्चात् सावधानेनचेतसा। जपताँ सततं तुलसी मालायाँ सा नुहुर्मुहुः ॥ 38॥
सावधान चित्त से ध्यानपूर्वक गायत्री मन्त्र को सात्विक प्रयोजन के लिये तुलसी की माला पर जपना चाहिए।
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