भीतरी और बाहरी सम्पदा
एक महर्षि थे।
उनका नाम था कणाद।
किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।
उन जैसा दरिद्र कौन होगा!
देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला।
उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा।
मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा,
"मैं सकुशल हूं।
इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरुरत है।"
इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछभी लेने से इन्कार कर दिया।
अंत में राजा स्वयं उनके पास गया।
वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया।
उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें,
किन्तु वे बोले, "उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।"
राजा को विस्मय हुआ!
जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहाहै कि उसके पास सबकुछ है।
उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही।
वह बोली,
"आपने भूल की।
ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।"
राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।
कणाद ने कहा, "गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं,
भीतर मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता।
इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।"
एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है।
जो बाहर है, वह आज या कल छिन ही जाती है।
इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं।
जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं।
उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।
*नमःशिवाय*
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